श्याम सुन्दर दास की जीवनी

डॉ॰ श्यामसुंदर दास हिंदी साहित्य के अनन्य साधक, आलोचक, विद्वान् और शिक्षाविद् थे। हिंदी साहित्य और बौद्धिकता के पथ-प्रदर्शकों में डॉ॰ श्यामसुंदर दास का नाम अविस्मरणीय है। डॉ॰ श्यामसुंदर दास और उनके साथियों ने मिलकर काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की।

श्याम सुन्दर दास का जीवन परिचय –

द्विवेदी युग के महान साहित्यकार बाबू श्याम सुंदर दास का जन्म काशी के प्रसिद्ध खत्री परिवार में 1875 ईसवी में हुआ था| इनके पूर्वज लाहौर के निवासी थे और आपके पिता का नाम लाला देवी दास खन्ना था, वह काशी में कपड़े का व्यापार करते थे। इनका बाल्यकाल बड़े सुख और आनंद से बीता| सर्वप्रथम इन्हें संस्कृत की शिक्षा दी गई, तत्पश्चात परीक्षाएं उत्तीर्ण करते हुए सन 1897 ईसवी में B.A. Pass किए|

बाद में आर्थिक स्थिति दयनीय होने के कारण चंद्रप्रभा प्रेस में ₹40 मासिक वेतन पर नौकरी की| इसके बाद काशी के हिंदू स्कूल में सन 1899 इसमें कुछ दिनों तक अध्यापन कार्य किया| इसके बाद लखनऊ के कालीचरण हाई स्कूल में प्रधानाध्यापक हो गए इस पद पर नव वर्ष तक कार्य किया|

इन्होंने 16 जुलाई सन 1893 ईसवी को विद्यार्थी- काल में ही अपने दो सहयोगियो राम नारायण मिश्र और ठाकुर शिवकुमार सिंह की सहायता से नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की| अंत में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हो गए और अवकाश ग्रहण करने तक इसी पद पर बने रहें |

श्यामसुंदर दास के द्वारा की गयी हिंदी साहित्य की पचास वर्षों तक निरंतर सेवा के कारण कोश, भाषा-विज्ञान, इतिहास, साहित्यालोचन, पाठ्य-सामग्री निर्माण, सम्पादित ग्रंथ आदि से हिंदी-जगत समृद्ध हुआ। दास जी के अविस्मरणीय कार्यों ने हिंदी को उच्चस्तर पद पर प्रतिष्ठित करते हुए विश्वविद्यालयों में गौरवपूर्वक स्थापित किया।

निरंतर कार्य करते रहने के कारण इनका स्वास्थ्य गिर गया और सन 1945 ईस्वी में इनकी मृत्यु हो गई| वह अन्य भाषाओं के समक्ष बैठने के अधिकारिणी हुई| हिंदी साहित्य सम्मेलन ने इन्हें साहित्य वाचस्पति और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में डी0 लिट0 की उपाधि देकर इनके साहित्यिक सेवाओं की महत्ता को स्वीकार किया|

श्री श्यामसुंदरदास ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा के माध्यम से हिंदी की बहुमुखी सेवा की और ऐसे महत्वपूर्ण कार्यों का सूत्रपात एवं संचालन किया जिनसे हिंदी साहित्य की अभूतपूर्व उन्नति हुई।

श्याम सुन्दर दास की रचनाएँ

(1) साहित्य लोचन, (2) हिंदू कोविद रत्नमाला, (3) रूपक रहस्य (4) भाषा रहस्य, (5) भाषा- विज्ञान, (6) हिंदी भाषा और साहित्य (7) गोस्वामी तुलसीदास,(8) साहित्यिक लेख, (9) मेरी आत्म कहानी, (10) हिंदी साहित्य- निर्माता, (11) भारतेंदु हरिश्चंद्र (12) नागरी वर्णमाला और (13) गद्य कुसुमा वर्ली, इनकी प्रमुख मौलिक कृतियां हैं| 

इसके अतिरिक्त संकलित ग्रंथ एवं पाठ्य पुस्तकों की संख्या भी बहुत है| बाबू श्याम सुंदर दास की भाषा सिद्धार्थ निरूपण करने वाली सीधी, ठोस है| विषय- प्रतिपादन की दृष्टि से यह संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हैं और जहां तक बन पड़ा है, विदेशी शब्दों के प्रयोग से बचते रहे हैं| कहीं-कहीं पर इनकी भाषा दुरूह और अस्पष्ट भी हो जाती है|

उसमें लोकोक्तियों का प्रयोग भी बहुत ही कम है वास्तव में इनकी भाषा का महत्व उपयोगिता की दृष्टि से है और उसमें एक विशिष्ट प्रकार की साहित्यिक गुरुता है| इनकी प्रारंभिक कृतियों में भाषा- शैथिल्य दिखाई देता है किंतु धीरे-धीरे वह प्रौढ़ स्वच्छ,, परिमार्जित और संयत होती गई है|

श्याम सुन्दर दास की शैली

बाबू श्याम सुंदर दास ने मुख्यतः दो प्रकार की शैलियों में लिखा है- 

1. विचारात्मक शैली- श्याम सुंदर दास ने विचारात्मक शैली में विचारात्मक निबंध लिखे हैं। विचारात्मक शैली के वाक्य छोटे-छोटे तथा भावपूर्ण हैं। विचारात्मक शैली में भाषा सरल, सबल और प्रवाहमयी है।
2. गवेषणात्मक शैली- गवेषणात्मक निबंधों में श्याम सुंदर दास ने गवेषणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। गवेषणात्मक शैली में वाक्य अपेक्षाकृत कुछ लंबे हैं। इस शैली में भाषा के तत्सम शब्दों की अधिकता है।

बाबू साहब ने अत्यंत गंभीर विषयों को बोधगम्य शैली में प्रस्तुत किया है संस्कृतशब्दों के साथ तद्भव शब्दों का भी यथेष्ट प्रयोग करके इन्होंने शैली को दुरूह बनने से बचाया है| इनकी शैली में सुबोधता, सरलता और विषय प्रतिपादन की निपुणता है|

बाबू श्याम सुंदरदास की शैलियों में अलंकारों की सजावट नहीं पाई जाती है तथा इनके साहित्य में कहावतों और मुहावरों का प्रयोग तो नहीं के बराबर हुआ है| बाबू साहब के वाक्य- विन्यास जटिल और दुर्बोध नहीं है| इनकी भाषा में उर्दू फारसी के शब्दों तथा मुहावरों का अभाव है|

व्यंग, वक्रोक्ति हास परिहास उसे इन के निबंध प्रायः शून्य हैं| विषय प्रतिपादन के अनुरूप इनकी शैली में वैज्ञानिक पदावली का समीचीन प्रयोग हुआ है| हिंदी भाषा का सर्वजन सुलभ, वैज्ञानिक और समृद्धि बनाने में इनका योगदान प्रीतम है| इन्होंने विचारात्मक, गवेषणात्मक तथा व्याख्यात्मक शैलियों का व्यवहार किया है| आलोचना, भाषा विज्ञान, भाषा का इतिहास, लिपि का विकास आदि विषयों पर इन्होंने वैज्ञानिक एवं सैद्धांतिक विवेचन प्रस्तुत कर हिंदी साहित्य को समृद्धि बनाया है


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